न हम रहे दिल लगाने के काबिल,
न दिल रहा ग़म उठाने के काबिल,
लगे उसकी यादों के जो ज़ख़्म दिल पर,
न छोड़ा उसने मुस्कुराने के काबिल।
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वो दिल ही नहीं रहे...

तू भी खामख्वाह बढ़ रही है ऐ धूप,
इस शहर में पिघलने वाले दिल ही नहीं रहे।
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यूँ तसल्ली दे रहे हैं हम दिल-ए-बीमार को,
जिस तरह थामे कोई गिरती हुई दीवार को।
दिल को तसल्ली शायरी
तेरा नाम था आज अजनबी की जुबान पर,
बात जरा सी थी पर दिल ने बुरा मान लिया।





इश्क़ हारा है तो दिल थाम के क्यों बैठे हो,
तुम तो हर बात पर कहते थे कोई बात नहीं।












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